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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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बाबू विट्ठलदास न्यायप्रिय सरल मनुष्य थे, जिधर न्याय खींच ले जाता, उधर चले जाते थे। इसमें लेश-मात्र भी संकोच न होता था। जब उन्होंने पद्मसिंह को न्यायपथ से हटते देखा, तो उनका साथ छोड़ दिया और कई महीने तक उनके घर न आए, लेकिन प्रभाकर राव ने जब आश्रम पर आक्षेप करना शुरू किया और सुमनबाई के संबंध में कुछ गुप्त रहस्यों का उल्लेख किया, तो विट्ठलदास का उनसे भी बिगाड़ हो गया। अब सारे शहर में उनका कोई मित्र न था। अब उन्हें अनुभव हो रहा था कि ऐसी संस्था का अध्यक्ष होकर, जिसका अस्तित्व दूसरे की सहायता और सहानुभूति पर निर्भर है, मेरे लिए किसी पक्ष को ग्रहण करना अत्यंत अनुचित है। उन्हें अनुभव हो रहा था कि आश्रम का कुशल इसी में है कि मैं इससे पृथक् रहते हुए भी सबसे मिला रहूं। यही मार्ग मेरे लिए सबसे उत्तम है। संध्या का समय था। वे बैठे हुए सोच रहे थे कि प्रभाकर राव के आक्षेपों का क्या उत्तर दूं। बातें कुछ सच्ची हैं, सुमन वास्तव में वेश्या थी, मैं यह जानते हुए उसे आश्रम में लाया। मैंने प्रबंधकारिणी सभा में इसकी कोई चर्चा नहीं की, इसका कोई प्रस्ताव नहीं किया। मैंने वास्तव में आश्रम को अपनी निज की संस्था समझा। मेरा उद्देश्य चाहे कितना ही प्रशंसनीय हो, पर उसे गुप्त रखना सर्वथा अनुचित था।

विट्ठलदास अभी कुछ निश्चय नहीं करने पाए थे कि आश्रम की अध्यापिका ने आकर कहा– महाशय, आनंदी, राजकुमारी और गौरी घर जाने को तैयार बैठी हैं। मैंने कितना समझाया, पर वे मानती ही नहीं। विट्ठलदास ने झुंझलाकर कहा– कह दो, चली जाएं। मुझे इसका डर नहीं है। उनके लिए मैं सुमन और शान्ता को नहीं निकाल सकता।

अध्यापिका चली गई और विट्ठलदास फिर सोचने लगे। ये स्त्रियां अपने को क्या समझती हैं? क्या सुमन ऐसी गई-बीती है कि उनके साथ रह भी नहीं सकतीं? उनका कहना है कि आश्रम बदनाम हो रहा है और यहां रहने में हमारी बदनामी है। हां, जरूर बदनामी है। जाओ, मैं तुम्हें नहीं रोकता।

इसी समय डाकिया चिट्ठियां लेकर आया। विट्ठलदास के नाम पांच चिट्ठियां थीं।

एक में लिखा था कि मैं अपनी कन्या (विद्यावती) को आश्रम में रखना उचित नहीं समझता। मैं उसे लेने आऊंगा। दूसरे महाशय ने धमकाया था कि अगर वेश्याओं को आश्रम से न निकाला जाएगा, तो वह चंदा देना बंद कर देंगे। तीसरे पत्र का भी यही आशय था। शेष दोनों पत्रों को विट्ठलदास ने नहीं खोला। इन धमकियों ने उन्हें भयभीत नहीं किया, बल्कि हठ पर दृढ़ कर दिया। ये लोग समझते होंगे, मैं इनकी गीदड़-भभकियों से कांपने लगूंगा! यह नहीं समझते कि विट्ठलदास किसी की परवाह नहीं करता। आश्रम भले ही टूट जाए, शान्ता और सुमन को मैं कदापि अलग नहीं कर सकता। विट्ठलदास के अहंकार ने उनकी सद्बुद्धि को परास्त कर दिया। सदुत्साह और दुस्साहस दोनों का स्रोत एक ही है। भेद केवल उनके व्यवहार में है।

सुमन देख रही थी कि मेरे ही कारण यह भगदड़ मची हुई है। उसे दुख हो रहा था कि मैं यहां क्यों आई? उसने कितनी श्रद्धा से इन विधवाओं की सेवा की थी, पर उसका यह फल निकला! वह जानती थी, विट्ठलदास कभी उसे वहां से न जाने देंगे, इसलिए उसने निश्चय किया कि क्यों न मैं चुपके से चली जाऊं? तीन स्त्रियां चली गयी थीं, दो-तीन महिलाएं तैयारी कर रही थीं, और कई अन्य देवियों ने अपने-अपने घर पर पत्र भेजे थे। केवल वही चुपचाप बैठी थीं, जिनका कहीं ठिकाना नहीं था। पर वह भी सुमन से मुंह चुराती फिरती थीं। सुमन यह अपमान न सह सकी। उसने शान्ता से सलाह की। शान्ता बड़ी दुविधा में पड़ी। पद्मसिंह की आज्ञा के बिना वह आश्रम से निकलना अनुचित समझती थी। केवल यही नहीं कि आशा का पतला सूत उसे यहां बांधे हुए था, बल्कि इसे वह धर्म का बंधन समझती थी। वह सोचती थी, जब मैंने अपना सर्वस्व पद्मसिंह के हाथों में रख दिया, तब अब स्वेच्छा-पथ पर चलने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जब सुमन ने निश्चित रूप से कह दिया कि तुम रहती हो तो रहो, मैं किसी भांति यहां न रहूंगी, शान्ता को वहां रहना असंभव-सा प्रतीत होने लगा। जंगल में भटकते हुए उस मनुष्य की भांति, जो किसी दूसरे को देखकर उसके साथ इसलिए हो लेता है कि एक से दो हो जाएंगे, शान्ता अपनी बहन के साथ चलने को तैयार हो गई।

सुमन ने पूछा– और जो पद्मसिंह नाराज हों?

शान्ता– उन्हें एक पत्र द्वारा समाचार लिख दूंगी।

सुमन– और जो सदनसिंह बिगड़ें?

शान्ता– जो दंड देंगे, सह लूंगी।

सुमन– खूब सोच लो, ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।

शान्ता– रहना तो मुझे यहीं चाहिए, पर तुम्हारे बिना मुझसे रहा न जाएगा। हां, यह बता दो कि कहां चलोगी?

सुमन– तुम्हें अमोला पहुंचा दूंगी।

शान्ता– और तुम?

सुमन– मेरे नारायण मालिक हैं। कहीं तीर्थ-यात्रा करने चली जाऊंगी।

दोनों बहनों में बहुत देर तक बातें हुई। फिर दोनों मिलकर रोईं। ज्योंही आज आठ बजे और विट्ठलदास भोजन करने के लिए अपने घर गए, दोनों बहनें सबकी आंख बचाकर चल खड़ी हुईं।

रात भर किसी को खबर न हुई। सबेरे चौकीदार ने आकर विट्ठलदास से यह समाचार कहा। वह घबराए और लपके हुए सुमन के कमरे में गए। सब चीजें पड़ी हुई थीं, केवल दोनों बहनों का पता न था। बेचारे बड़ी चिंता में पड़े। पद्मसिंह को कैसे मुंह दिखाऊंगा? उन्हें उस समय सुमन पर क्रोध आया। यह सब उसी की करतूत है, वही शान्ता को बहकाकर ले गई है। एकाएक उन्हें सुमन की चारपाई पर एक पत्र पड़ा हुआ दिखाई दिया। लपककर उठा लिया और पढ़ने लगे। यह पत्र सुमन ने चलते समय लिखकर रख दिया था। इसे पढ़कर विट्ठलदास को कुछ धैर्य हुआ। लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह दुख हुआ कि सुमन के कारण मुझे नीचा देखना पड़ा। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं अपने धमकी देने वालों को नीचा दिखाऊंगा, पर यह अवसर उनके हाथ से निकल गया। अब लोग यही समझेंगे कि मैं डर गया। यह सोचकर उन्हें बहुत दुख हुआ।

आखिर वह कमरे से निकले। दरवाजे बंद किए और सीधे पद्मसिंह के घर पहुंचे।

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